कैसे भूली हूँ माँ..........
जब कोई न था साथ मेरे तब
आप ही तो थी मेरा साहस
कैसी मेरी तकलीफों को
अपने सर ले लिया था आपने
तब ये दुनियाँ के लोग भागते थे
तब आप ही थीं मेरे सिरहाने
मेरे सर पे हाथ रखने वाली
मेरे लिए दौड़ी-दौड़ी भागती थीं माँ
मेरे कहने से पहले बिन बताये मुझे
मेरी पसन्द की चीज मुझे मेरी आँख
खुलते ही मेरे सामने रख देती थीं माँ
इस दुनियाँ में तब जाना था माँ मैंने
यहाँ सब रिश्ते झूठे होते हैं सिवाय आपके
जब मैं बीमारी से कहारती थी माँ
तब तकलीफ आपको होती थी माँ
माँ जानती हो जब तुम अपना
जादू वाला हाथ मेरे सर फेरती हो
तब मेरे सर से मुसीबतों का पहाड़
फुर्र से गायब हो जाता है माँ
जिस क़लम से मैंने ये रचना लिखी है
सारी कलम की स्याही कम पड़ जाए माँ
आपका बखान करते - करते माँ तब भी
मैं आपकी तारीफ को न कर पाऊँ बयाँ
मेरा मुसीबत में साथ देने के लिए
जितना मैं आपका शुक्रिया करूँ कम है माँ
जब भी आपके लिए ये क़लम उठी है माँ
आपकी याद में इन नैनों में नीर भरे हैं माँ
तुम कितनी अच्छी हो माँ .............
माँ, मेरी माँ, मेरी प्यारी माँ, मेरी प्यारी-प्यारी माँ.......
शीरीं मंसूरी " तस्कीन"
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