अधूरे से ख़्वाब बुने , बिन मंज़िल के
सूनी रहो पे तन्हा जिये जा रही हूँ
न रास्ता पता न मंज़िल का ठिकाना
न जिंदगी में कोई उमंग-तरंग
न कोई मकसद रहा जीने का अब
ऐ , बेख़बर मैं खुद अंजान हूँ
तुम्हारी अनसुलझी, अनकही
"तस्कीन" सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी
शीरीं मंसूरी "तस्कीन"
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