एक नई कोशिश की है...
शायद इसे लेखन तो नहीं कहा जा सकता, आप चाहें तो कह भी सकते हैं... कुछ क़लम घिसी है ... क्या
निकला ... खुद तय करना मुश्किल है.... आप बताइयेगा
निकल
पड़ती हूँ हर रोज तुम्हारी तलाश में
ऐ मेरे हमदम .....
ऐ मेरे हमदम .....
ढूंढती हूँ हर इंसान के
अन्दर तुझे
ऐ मेरे हमदम .....
ऐ मेरे हमदम .....
सूनी
सड़कों में , सूनी
गलियों में तुझे
ऐ मेरे हमदम .....
ऐ मेरे हमदम .....
हर
दिन तेरा बेसब्री से इंतज़ार करती हूँ
ऐ मेरे हमदम .....
ऐ मेरे हमदम .....
कभी
खुद गिरती हूँ , कभी
खुद को संभालती हूँ
ऐ मेरे हमदम .....
ऐ मेरे हमदम .....
हर
सुबह भोर के तारे के साथ ढूंढती हूँ तुझे
ऐ मेरे हमदम .....
ऐ मेरे हमदम .....
नई
किरण के साथ नई उम्मीद के साथ ढूंढती हूँ तुझे
ऐ मेरे हमदम .....
ऐ मेरे हमदम .....
शीरीं
मंसूरी 'तस्कीन'
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