आज हवाएं बहुत तेज हैं
मेरे कानों के पास से गुजर कर
ये मुझसे कुछ कह रही हैं
हमेशा तुम अकेली क्यों आती हो
अपने महबूब को क्यों नहीं लायी
कब तक इन हवाओं से
इन महके हुये फूलों से,
इन चाँदनी भरी रातों से
कब तक झूठ बोलूँ कि मेरा महबूब
अब तक मुझसे रूठा जो है
शायद इन हवाओं को, मैं तुम्हारे पास भेजूं
तो ये हवाएँ ही तुम्हें , मना के ले आएं
मेरी न सही ऐ मेरे महबूब ,
इन हवाओं की तो सुनोगे तुम
तब तो तुम्हें तरस आएगा न मेरे
दिल पर
ये दिल तुम्हें कितना बार-बार
कितना याद करता है
मंसूरी "तस्कीन"
हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति. बधाई शीरींजी. सरलता में लिपटी मर्मस्पर्शी रचना बहुत प्रभावशाली है. लिखते रहिये.
ReplyDeleteअंतिम पंक्ति में मामूली सुधार की गुंज़ाइश है.